परम लक्ष्य की सिद्धि के लिए मार्ग कौन श्रेष्ठ है, ज्ञान या भक्ति? गोस्वामी तुलसीदास का स्पष्ट मत है कि ज्ञानमार्गकी तुलना में भक्तिमार्ग अधिक सरल है, ऋजु है, अत:सामान्य साधक के लिए यही मार्ग वरेण्य है। मानस के उत्तर काण्ड में गोस्वामी जी लिखते हैं: जीव ईश्वर का ही निर्मल है। परन्तु माया के बंधन में फंसकर उसकी गति पिंजरे में पडे तोते और मदारी की डोर से बंधे बंदर जैसी हो गई है। अब प्रश्न यह है कि जीव माया के बंधन से छूटे कैसे? इसके लिए दो मार्ग हैं, ज्ञान और भक्ति। ज्ञानमार्गअति दुर्गम और दुरूह है। भक्तिमार्ग अति सुगम है। ज्ञान और भक्तिमार्ग का अन्तर स्पष्ट करने के लिए गोस्वामी जी एक लम्बा रूपक बांधते हैं।
माया के कारण जीव के हृदय में घोर अंधकार भरा रहता है। घने अंधकार के कारण जीव माया के बंधन की गांठ सुलझाने में अक्षम सिद्ध होता है। बंधन की गांठ खोलने के लिए प्रकाश की आवश्यकता होती है। प्रकाश पाने के लिए जीव को बडी लम्बी साधना करनी पडती है। ईश्वर की कृपा से जीव के हृदय में श्रद्धा रूपी गाय का समागम होता है। यह गाय जप-तप रूपी घास चर करके सद्भाव रूपी बछडे को जन्म देती है। सद्भाव रूपी बछडा जब श्रद्धा रूपी गाय के स्तन को स्पर्श करता है तो वह पेन्हाजाती है। पेन्हानेके पश्चात् जीव का निर्मल मन रूपी दोग्धाविश्वास रूपी पात्र में गाय को दुहता है। तदनन्तर ज्ञानमार्गका पथिक जीव धर्मरूपीइस दुग्ध को निष्कामताकी अग्नि में औटाताहै। औटायाहुआ धर्मदुग्धजीव के क्षमा और संतोष रूपी शीतल वायु के स्पर्श से ठंडा होता है। तत्पश्चात् जीव इस दुग्ध में धैर्य रूपी जामन डालकर इसे जमाता है। फिर वह दही को पुनीत विचार रूपी मथानी से मथता है। मथानी को चलाने के लिए जीव इसे इन्द्रिय निग्रह एवं सत्याग्रह रूपी रस्सियों से बांधता है। ऐसी मथानी से धर्मदुग्धके मथने से जीव को वैराग्यरूपीनवनीत (मक्खन) की प्राप्ति होती है। नवनीत रूपी वैराग्य की प्राप्ति के उपरान्त जीव योगरूपीअग्नि को प्रकट करता है और इसी अग्नि की ज्वाला में अपने सभी पूर्व शुभाशुभ कमरें को कर देता है। इतना सब करने के उपरान्त जीव को विज्ञान रूपी बुद्धिघृतकी सम्प्राप्ति होती है। जीव इस बुद्धिघृतको चित्त रूपी दीये में डालकर इसे समता रूपी दिऔटेपर स्थापित करता है। साथ ही जीव अपने चित्त रूपी कपास से सत, रज, तम इन तीन गुणों को निष्कासित करके, जागृति, स्वप्न एवं सुसुप्तिअवस्थाओं से ऊपर उठकर दीपक में डालने के लिए तुरीयावस्था की बाती बनाता है। इतना सब कर्मकाण्ड करने के पश्चात् जीव विज्ञान रूपी दीपक को प्रज्वलित कर देता है। इस दीपक के आसपास मंडराते काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह मात्सर्य के कीट-पतंग जलकर भस्म हो जाते हैं।
इसी दीपक के प्रकाश में जीव को सहसा यह अनुभूति होती है कि वह स्वयं ब्रह्म है (सोऽहमस्मि)। उसके हृदय का माया जनित संपूर्ण अंधकार उच्छिन्न हो जाता है। सोऽहमस्मिजीव का सारा भ्रम नष्ट कर देती है। अविद्या और अज्ञान की पूरी बारात चित्तवृत्तिओले की भांति गल जाती है। ज्ञान के इसी प्रकाश में जीव की बुद्धि मायाजनितबंधन की उन गांठों को खोलने का प्रयास करती है, जिनके कारण वह भवचक्र में पडा हुआ है। परंतु ज्यों ही जीव इस कार्य में प्रवृत्त होता है, माया उसके सम्मुख भांति-भांति के विघ्न और प्रलोभन लेकर उपस्थित होती है। माया जीव को ऋद्धि-सिद्धि के मोहजालमें फंसाने का प्रयास करती है। माया के लम्बे हाथ दीपक तक पहुंच जाते हैं। वह अपने आंचल की हवा से जीव के चित्त में प्रज्वलित विज्ञानदीपको बुझा देती है। जीव यदि एकनिष्ठभाव में अपनी साधना में प्रवृत्त रहता है तो वह ऋद्धि-सिद्धि के आकर्षण में नहीं फंसता। वह माया की आंखों से आंखें नहीं मिलाता। ऐसा ही विरल जीव अपने लक्ष्य पर आरूढ हो पाता है। ऐसा भी होता है कि माया के असफल होने की स्थित में देवगण जीव को लक्ष्य-भ्रष्ट करने के लिए भांति-भांति के उत्पात मचाते हैं। पांचों ज्ञानेन्द्रियोंके द्वारों पर देवताओं का वास रहता है। देवता जब देखते हैं कि बाहर से विषयों की आंधी जीव की ओर बढ रही है तो वे ज्ञानेन्द्रियोंके गवाक्षखोल देते हैं। विषय की आंधी जीव के चित्त में पहुंचकर हठात् उसके विज्ञान दीप को बुझा देती है। जीव माया सृजित बंधन की गांठ सुलझाने में सफल नहीं हो पाता। इस प्रकार जीव पुन:भवचक्र में गिर जाता है और नाना प्रकार के सांसारिक दु:खों को भोगने के लिए बाध्य हो जाता है। गोस्वामी जी ऐसा मानते हैं कि ज्ञानमार्गपर चलना तलवार की धार पर चलने जैसा है। थोडी सी असावधानी हुई कि जीव साधना-क्षेत्र से बाहर हो जाता है। जो जीव एकनिष्ठभाव से ज्ञानमार्गका अनुसरण करता है, उसी को कैवल्य पद की प्राप्ति होती है।
ज्ञान मार्ग में विघ्न बाधाएं बहुत हैं। भक्तिमार्ग सारी विघ्न-बाधाओं से मुक्त है। भक्तिमार्गानुगामीजीव को भक्तिपथपर सतत् अग्रसर होने के लिए रामनामरूपीचिन्तामणि से निरन्तर प्रकाश मिलता है। जीव को प्रकाश के लिए दीपक, घी, बाती जैसी सामग्री की आवश्यकता नहीं पडती। चिन्तामणि के पास काम, क्रोध जैसी दुष्ट प्रवृत्तियां फटकती तक नहीं। लोभ की आंधी भी चिन्तामणि के प्रकाश को बुझा नहीं सकती। चिन्तामणि अज्ञान के सघन अंधकार को मिटाकर निरन्तर प्रकाश ही प्रकाश बिखेरती रहती है। जिस जीव के हृदय में रामभक्तिरूपीचिन्तामणि विद्यमान है, वह सांसारिक क्लेशों से सर्वथा मुक्त हो जाता है। जीव को चिन्तामणि की प्राप्ति ईश्वरीय कृपा से ही होती है। गोस्वामी जी के शब्दों में :
राम भगतिचिन्तामणि सुंदर। बसइगरुड जाके उर अंतर।। परम प्रकासरूप दिन राती।नहिंकछुचहियदिया घृत बाती।। सेवक सेव्य भाव बिनुभव न तरियउरगारि।भजहुरामपदपंकज अससिद्धान्त विचारि।।
सभ्य समाज में रहने वाले व्यक्ति की पहचान के लिए उसका संस्कारवान होना आवश्यक है। अच्छे संस्कार ही पर्याय है सभ्यता का। यदि हम देखने में सुंदर हैं, लेकिन संस्कारों से शून्य अर्थात दरिद्र है तो हमारी सुंदरता का कोई मूल्य नहीं है।
संस्कारों के माध्यम से आदर्शो के पुंज एकत्र किए जा सकते हैं। सज्जनता हमें अपने आचरण से दीर्घकाल तक जीवित रखती है। संस्कारवान व्यक्ति जीवन में आने वाली समस्याओं का सामना करने की सामर्थ्य रखता है। इसके साथ ही हर व्यक्ति भी सुस्कारित मानव को ही पसंद करते है नैतिकता का सीधा संबंध आत्मबल से है जो संस्कारों से ही निर्मित होती है। हमारे गुण, कर्म, स्वभाव में घुले-मिले कुसंस्कारों को हमारे द्वारा अर्जित संस्कारों की शक्ति ही उन्हें अप्रभावित करती है। आत्मा परमात्मा का ही स्वरूप है, जो हमारे शरीर रूपी मंदिर में सदैव विराजमान रहते हैं। हमारा कर्तव्य है कि हम अपने आचरण से किसी भी तरह आत्मा को कलुषित न होने दें। हमसे जुडी हुई हमारी सामाजिक जिम्मेदारियां भी है जिनका निर्वहन भी हम अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व के माध्यम से करने में तभी समर्थ होंगे जब हम सुसंस्कारिता के क्षेत्र में संपन्न होंगे। संस्कार हमारे आत्मबल का निर्माण करते हैं। शालीनता, सज्जनता, सहृदयता, उदारता, दयालुता जैसे सद्गुण सुसंस्कारिता के लक्षण हैं। आधुनिकता के इस युग में संस्कारों की मजबूत लकीर धूमिल होती जा रही है, हमें इसे बचाना होगा। इस दिशा में विवेकशील लोगों को आगे आना होगा। यह मानवता, नैतिकता और समाज के विकास के लिए अति आवश्यकता है। सामाजिक संतुलन सुसंस्कारिता के आधार पर ही कायम रखा जा सकता है अन्यथा सर्वत्र अराजकता का ही बोल बाला हो जाएगा, जो एक सभ्य समाज के लिए असहनीय बात होगी, क्योंकि हर कोई सुख, शांति, प्रगति और सम्मान चाहता है जो संस्कारों के द्वारा ही संभव है। संस्कार हमें नैतिकता की शिक्षा देते हैं। मानवता इसी से पोषित होती है। चरित्र निर्माण के लिए संस्कारों की पृष्ठभूमि निर्मित करनी होती है। रहन-सहन का तरीका, जीवन जीने की कला, लोकव्यवहार आदि सदाचार से संबंधित बातें है जो हमें जीवन में सुख, शांति, समृद्धि और प्रगति के मार्ग पर अग्रसर करती है। समाज में भाई चारा और आत्मीयता का विस्तार भी नैतिकता और मानवता के माध्यम से ही संभव है। यदि हम सुखी होंगे तो हमारे पडोसी भी सुखी होंगे इस भावना को यदि हम अपने परिवार से ही विकसित करेंगे तो निश्चय ही आत्मीयता का विस्तार होगा।
~~~ॐ सांई राम ~~~
~~साईं नाम मुद मंगलकारी,विघ्न हरे सब पातकहारी,~~
~~साईं नाम है सबसे ऊंचा,नाम शक्ती शुभ ज्ञान समूचा ।~~
~~~श्री सच्चीदानंद समर्थ सदगुरू सांई नाथ महाराज की जय ~~~
~~~जय सांई राम ~~~
जय सांई राम।।।
महात्मा बुद्ध किसी उपवन में विश्राम कर रहे थे। तभी बच्चों का एक झुंड आया और पेड़ पर पत्थर मारकर आम गिराने लगा। एक पत्थर बुद्ध के सिर पर लगा और उससे खून बहने लगा। बुद्ध की आंखों में आंसू आ गए। बच्चों ने देखा तो भयभीत हो गए। उन्हें लगा कि अब बुद्ध उन्हें भला-बुरा कहेंगे। बच्चों ने उनके चरण पकड़ लिए और उनसे क्षमा याचना करने लगे। उनमें से एक ने कहा, ‘हमसे भारी भूल हो गई है। हमने आपको मारकर रुला दिया।’ इस पर बुद्ध ने कहा, ‘बच्चों, मैं इसलिए दुखी हूं कि तुम ने आम के पेड़ पर पत्थर मारा तो पेड़ ने बदले में तुम्हें मीठे फल दिए, लेकिन मुझे मारने पर मैं तुम्हें केवल भय दे सका।’
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
मोहमाया है केवल धोखा
यदि मनुष्य अपने भीतर गहराई से यह प्रश्न पूछे कि उसे किस चीज की तलाश है तो भीतर गहराई से एक ही उत्तर आएगा कि सुख व शांति की तलाश है। मनुष्य सोचता है कि ज्यादा धन कमा लूंगा तो मै सुखी हो जाऊंगा और ज्यादा यश कमा लूंगा तो मै सुखी हो जाऊंगा। बहुत कमा लेने पर भी जब वह सुख, शांति नही पाता तो मन कहता है कि सुख इसलिए नही मिला कि श्रम मे कही कमी थी और शक्ति से दौडो और धन इकट्ठा करो, जबकि केवल धन कमाने से ही सुख प्राप्त नही होता क्योंकी जिन वस्तुओ मे व्यक्ती सुख तलाश रहा है वहां सुख है ही नही। सांसारिक मोह माया तो केवल धोखा है।अगर हम भीतर से खुश है तो हमे रेगिस्तान मे भी फूल खिले हुए महसूस होगे और अगर हम दुखी है तो हमे फूलो के बगीचे मे चारों ओर कांटे ही कांटे नजर आएंगे। हम खुश है तो बाहर चिलचिलाती धूप भी अच्छी है और हम दुखी है तो बाहर का मौसम चाहे कितना खुशगवार हो तो भी हमे पतझड की तरह लगता है। क्योंकी जैसा हम भीतर से महसूस करते है, वैसा ही हमे संसार नजर आता है। इससे एक बात तो सिद्ध होती है कि सुख भीतर से आता है बाहर से नही।जब हम निद्रा से उठते है तो ताजगी अनुभव करते है क्योंकी धन कमाने की, यश मिलने की यात्रा ऊर्जा की बहिर्यात्रा है और निद्रा ऊर्जा की अंतर्यात्रा है। बाहर का जितना बडा ब्रह्माण्ड है उतना ही बडा भीतर का ब्रह्माण्ड है। हम मध्य मे खडे है। बाहर की तरफ यात्रा करेगे, तो केवल यात्रा ही यात्रा है पहुंचेगे कही नही क्योंकी मंजिल बाहर नही भीतर है।दूसरी बात हम सोचते है कि हम सुख की तलाश मे भटक रहे है पर यह गलत है। व्यक्ती को सुख की तलाश मे नही बल्कि उसे आनंद की तलाश मे भटकना चाहिए। चूंकि हमारा पंचभूतो से बना शरीर इंद्रियो से जुडा है इसलिए हम उसे ही सुख समझते है। यह देह तो केवल एक वस्त्र की भांति है परन्तु जैसे ही भीतर की यात्रा शुरू होती है वैसे-वैसे बाहर की परतें छूटती जाती है और हम अपने स्वरूप को पहचानने लगते है।
१ आसमान ने कहा ....माँ एक इन्द्रधनुष है ,जिसमें सभी रंग समाये हुए हैं
२ शायर ने कहा ....माँ एक ऐसी गजल है जो सबके दिल में उतरती चली जाती है
३ माली ने कहा ....माँ एक दिलकश फूल है जो पूरे गुलशन को मह्काता है
४ औलाद ने कहा ....माँ ममता का अनमोल खजाना है जो हर दिल पर कुर्बान है
५ वाल्मीकि जी ने कहा ....माता और मातर भूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊँचा है
६ वेद व्यास जी ने कहा ....माता के समान कोई गुरु नही है
७ पैगम्बर मोहम्मद साहब ने कहा....माँ वह हस्ती है जिसके क़दमों के नीचे जन्नत है
ॐनम:शिवाय मंत्र का पहला अक्षर है बीजमंत्र, जिसमें तीन अक्षरों का योग है-अ, उऔर म।इन अक्षरों के स्पंदन से बनता है ॐ।यह स्पंदन ही उस अलौकिक शक्ति की पहचान है, जो हमारे भीतर आत्मबल का संचार करती है। यही स्पंदन हमारे भीतर की कुप्रवृत्तियोंको नष्ट कर हमें कल्याण के मार्ग पर आगे बढने को प्रवृत्त करता है। शिव ही नहीं जितने भी देवताओं और देवियों की परिकल्पना की गई है, सभी ऐसे ही स्पंदनों पर आधारित हैं। वास्तव में सभी देवी-देवताओं का संयुक्त स्वरूप एक ही परम ब्रह्म है, जो इस स्पंदन से प्रभावित होता है। मंत्रों का स्पंदन विभिन्न दिशाओं की ओर उत्सर्जितहोता है। वैसे ही एक-एक स्पंदन का मूल है यह बीज मंत्र। मंत्र वैसा ही स्पंदन पैदा करते हैं, जो बोलनेवालाचाहता है। यानी कोई भक्त जब विद्या की अधिष्ठात्री सरस्वती की उपासना करता है और मंत्र बोलता है तो उससे वायुमंडल में उत्पन्न होनेवालास्पंदन शक्ति के उसी स्वरूप को आकर्षित करता है और उसके चित्त में वही शक्ति आभासित हो उठती है। भारत के महर्षियोंने लंबे समय तक घोर तपस्या करके मंत्रों का दर्शन किया है, जिससे देवी-देवताओं तक पहुंचा जा सकता है। वैसे ही मंत्रों को वेदों में संकलित किया गया है। उन महर्षियोंने भगवान शिव के स्वरूप को अच्छी तरह पहचान लिया था। उन्होंने जान लिया था कि भगवान शिव वास्तव में तो निर्गुण निराकार हैं, लेकिन उनकी उपासना आम श्रद्धालु भक्त गण कैसे कर पाएंगे। इसलिए उन्होंने भगवान शिव को सगुण साकार रूप में देखा और संसारवासियोंको बताया। यहीं से प्रतिमाओं की कल्पना होती है। प्रतिमा शब्द का अर्थ होता है प्रतिरूप। यानी ठीक वैसा ही, जैसा स्वयं भगवान शिव हैं। हालांकि शिव का दूसरा प्रतिमानहो ही नहीं सकता, लेकिन उपासना की सुगमता को ध्यान में रखकर उनकी प्रतिमा की परिकल्पना कर ली गई है। उस दृष्टिकोण से भगवान शिव सगुण साकार रूप में अनेक विग्रहोंके स्वामी हैं, लेकिन उनके विग्रहोंमें शिवलिंगका सर्वाधिक महत्व बताया जाता है। उनकी पूजा अर्चना करना अत्यंत लाभप्रद माना जाता है, लेकिन सर्वोपरि होता है मंत्र, जिसे बोल कर अर्चना की जाती है। उस मंत्र के समुचित प्रयोग के बिना अर्चना का अर्थ ही व्यर्थ हो जाता है।
वैदिक धर्म में आत्मा की एकता पर सबसे अधिक जोर दिया गया है। जो आदमी इस तत्व को समझ लेगा, वह किससे प्रेम नहीं करेगा? जो आदमी यह समझ जाएगा कि 'घट-घट में तोरा साँई रमत है!' वह किस पर नाराज होगा? किसे मारेगा? किसे पीटेगा? किसे सताएगा? किसे गाली देगा? किसके साथ बुरा व्यवहार करेगा?
यस्मिन्सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद्विजानतः ।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ॥
जो आदमी सब प्राणियों में एक ही आत्मा को देखता है, उसके लिए किसका मोह, किसका शोक?
वैदिक धर्म का मूल तत्व यही है। इस सारे जगत में ईश्वर ही सर्वत्र व्याप्त है। उसी को पाने के लिए, उसी को समझने के लिए हमें मनुष्य का यह जीवन मिला है। उसे पाने का जो रास्ता है, उसका नाम है धर्म।
ईश प्राप्ति (शांति) के लिए अंतःकरण शुद्ध होना चाहिए | – रविदास
ईश्वर के हाथ देने के लिए खुले हैं. लेने के लिए तुम्हें प्रयत्न करना होगा | – गुरु नानक देव
रहिमन बहु भेषज करत , ब्याधि न छाडत साथ । खग मृग बसत अरोग बन , हरि अनाथ के नाथ ॥
अजगर करैं न चाकरी, पंछी करैं न काम। दास मलूका कहि गये सब के दाता राम।। —– सन्त मलूकदास